उलझी मगर, उलझी नहीं
दराज़ ज़ुल्फ़ों में भटका मेरा नजर तो क्या

गुज़रे मगर, गुजरे नहीं
तेरे गली में नज़र आये, मेरे कदम के निशान तो क्या

चुभा मगर, चुभा नहीं
तेरे समसाम नाक को लिए, जंग लड़ गए तो क्या

बुझी मगर, बुझी नहीं
तेरे दर पर, मेरे नाम का दिया आज भी जले तो क्या

छूटे मगर, छूटे नहीं
तेरी यादों में रैन बिताने का फैसला कर लिया तो क्या

कड़वी मगर, कड़वी नहीं
तेरे लफ़्ज़ों में सुनाई दिए मेरे लफ्ज़ तो क्या

भूले मगर, भूले नहीं
आदत एक दूसरे के, बन गए छिड़ तो क्या

तंग मगर, तंग नहीं
सुनी सुनी सी शिक़वा और रोज़-मर्रा की फ़रियाद तो क्या

दूर मगर, दूर नहीं
ये फासले हमारे यूँ ही रह गये अगर तो क्या