नमी नमी सी, रह गयी क्यों
कमी कमी सी, लग रही क्यों

तू जो चला राह कोई और
छा गया अंधेरा घनघोर
तेरे साथ चल न सका दो कदम
तेरे बगैर चल न पाएगी ये दम

नमी नमी सी, रह गयी क्यों
कमी कमी सी, लग रही क्यों

हस्ते रहे मेरे ज़ख्म
पीते रहे हर वो सितम
तरसते रहे मेरे करम
कैसे कहें अब तुम्हें बेरहम

नमी नमी सी, रह गयी क्यों
कमी कमी सी, लग रही क्यों

कोई कहे इसे जादू, और कोई बेवकूफी
कोई कहे मुझे पागल, और कोई नाइंसाफी
के ऐसी अदा, ऐसी शबाब, कैसे एक हुस्न में
के ऐसी परी, क्यों घर बनाये इस बदनसीब में

नमी नमी सी, रह गयी क्यों
कमी कमी सी, लग रही क्यों

सूनापन को नया एक आसरा, दिया है तुमने
अकेलेपन को फिर से, जगाया है तुमने
दीवानों का ये हाल पहले भी, सुनाता हमने
होगी हमारी भी गिनती इनमे, जाना न था हमने

नमी नमी सी, रह गयी क्यों
कमी कमी सी, लग रही क्यों